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लक्ष्मीकांत: संविधान की मुख्य विशेषताएं | एम. लक्ष्मीकांत (M. Laxmikanth) भारत की राज्य व्यवस्था - UPSC PDF Download

भारतीय संविधान 

भारतीय संविधान अपने मूल भावना के संबंध में अद्वितीय है। हालांकि इसके कई तत्व विश्व के विभिन्न संविधानों से उधार लिये गये हैं। भारतीय संविधान के कई ऐसे तत्व हैं, जो उसे अन्य देशों के संविधानों से अलग पहचान प्रदान करते हैं।

  • भारतीय संविधान के कई ऐसे तत्व हैं, जो उसे अन्य देशों के संविधानों से अलग पहचान प्रदान करते हैं। यह बात ध्यान देने योग्य है कि सन् 1949 में अपनाए गए संविधान के अनेक वास्तविक लक्षणों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं।
  • विशेष रूप से 7 वें, 42 वें, 44 वें, 73 वें, 74 वें एवं 97 वें संशोधन में।संविधान में कई बड़े परिवर्तन करने वाले 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 को ‘मिनी कॉन्स्टिट्यूशन’ कहा जाता है। 
  • केशवानंद भारती मामले (1973) में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि अनुच्छेद 368 के तहत संसद को मिली संवैधानिक शक्ति संविधान के मूल ढांचे ‘को बदलने की अनुमति नहीं देती। 

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संविधान की प्रमुख विशेषताएं

संविधान की प्रमुख विशेषताएं का नीचे वर्णन किया गया है:


1. सबसे लंबा लिखित संविधान

  • संविधान को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है-लिखित, जैसे अमेरिकी संविधान, और; अलिखित, जैसे-ब्रिटेन का संविधान।  भारत का संविधान विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान है। यह  बहुत बृहद समग्र और विस्तृत दस्तावेज है। मूल रूप से (1949) संविधान में एक प्रस्तावना, 395 अनुच्छेद (22 भागों में विभक्त) और 8 अनुसूचियां थीं। 
  • वर्तमान में (2016) इसमें एक प्रस्तावना, 465 अनुच्छेद (25 भागों में विभक्त) और 12 अनुसूचियां हैं। सन् 1951 से हुए विभिन्न संशोधनों ने करीब 20 अनुच्छेद व एक भाग (भाग- VII) को हटा दिया और इसमें करीब 90 अनुच्छेद, चार भागों (4 क, 9 क, 9 ख और 14 क) और चार अनुसूचियों (9, 10, 11, 12) को जोड़ा गया। विश्व के किसी अन्य संविधान में इतने अनुच्छेद और अनुसूचियां नहीं हैं।

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भारत के संविधान को विस्तृत बनाने के पीछे निम्न चार कारण हैं: 

  1. भारतीय संविधान के विशाल आकार में योगदान करने वाले कारक हैं:
    • भौगोलिक कारक, यानी देश की विशालता और इसकी विविधता।
    • ऐतिहासिक कारक, उदाहरण के लिए, 1935 के भारत सरकार अधिनियम का प्रभाव।
    • केंद्र और राज्यों दोनों के लिए एक ही संविधान।
    • संविधान सभा में कानूनी दिग्गजों का दबदबा।
  2. भारत के संविधान में न केवल शासन के मौलिक सिद्धांत हैं बल्कि विस्तृत प्रशासनिक प्रावधान भी हैं। भारत के संविधान में न्यायसंगत और गैर-न्यायिक दोनों अधिकार शामिल हैं।

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2. विभिन्न स्रोतों से विहित

  • भारत के संविधान ने अपने अधिकांश प्रावधानों को विभिन्न अन्य देशों के संविधानों के साथ-साथ 1935 के भारत सरकार अधिनियम [1935 अधिनियम के लगभग 250 प्रावधानों को संविधान में शामिल किया गया है] से उधार लिया है।
  • भारत के संविधान ने अपने अधिकतर उपबंध विश्व के कई देशों के संविधानों भारत-शासन अधिनियम, 1935 के उपबंधों से हैं। डॉ. अंबेडकर ने गर्व के साथ घोषणा की थी कि, “भारत के संविधान का निर्माण विश्व के विभित्र संविधानों को छानने के बाद किया गया है।” 
  • संविधान का अधिकांश ढांचागत हिस्सा भारत शासन अधिनियम, 1935 से लिया गया है। संविधान का दार्शनिक भाग (मौलिक अधिकार और राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांत) क्रमशः अमेरिका और आयरलैंड से प्रेरित है। भारतीय संविधान के राजनीतिक भाग (संघीय सरकार का सिद्धांत और कार्यपालिका और विधायिका के संबंध) का अधिकांश हिस्सा ब्रिटेन के संविधान से लिया गया है। 
  • संविधान के अन्य प्रावधान कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, यूएसएसआर (अब रूस), फ्रांस, दक्षिण अफ्रीका, जापान इत्यादि देशों के संविधानों से लिए गए हैं। भारत के संविधान पर सबसे बड़ा प्रभाव और भौतिक सामग्री का स्रोत भारत सरकार अधिनियम, 1935 रहा है। 
  • संघीय व्यवस्था, न्यायपालिका, राज्यपाल, आपातकालीन अधिकार, लोक सेवा आयोग और अधिकतर प्रशासनिक विवरण इसी से लिए गए हैं। संविधान के आने से अधिक प्रावधान या तो 1935 के इस अधिनियम के समान है या फिर इससे मिलते-जुलते हैं।

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3. नम्यता एवं अनम्यता का समन्वय

संविधानों को नम्यता और अनम्यता की दृष्टि से भी वर्गीकृत किया जाता है। कठोर वा अनम्य संविधान उसे माना जाता है, जिसमें संशोधन करने के लिए विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता हो। उदाहरण के लिए अमेरिकी संविधान।लचीला या नम्य संविधान वह कहलाता है, जिसमें संशोधन की प्रक्रिया वही हो, जैसी किसी आम कानूनों के निर्माण की, जैसे-ब्रिटेन का संविधान। भारत का संविधान न तो लचीला है और न ही कठोर, बल्कि यह दोनों का मिला-जुला रूप है।
अनुच्छेद 368 में दो तरह के संशोधनों का प्रावधान है:

  • कुछ उपबंधों को संसद में विशेष बहुमत से संशोधित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, दोनों सदनों में उपस्थित और मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों का दो-तिहाई बहुमत और प्रत्येक सदन में कुल सदस्यों का बहुमत (जो कि 50 जो कि 50 प्रतिशत से अधिक है)
  • कुछ अन्य प्रावधानों को संसद के विशेष बहुमत और कुल राज्यों के आधे से अधिक राज्यों के अनुमोदन से ही संशोधित किया जा सकता है। इसके अलावा संविधान के कुछ प्रावधान आम विधायी प्रक्रिया की तरह संसद में सामान्य बहुमत के माध्यम से संशोधित किए जा सकते हैं। उल्लेखनीय है कि ये संशोधन अनुच्छेद 368 के अंतर्गत नहीं आते।

4. एकात्मकता की ओर झुकाव के साथ संघीय व्यवस्था

  • भारत का संविधान संघीय सरकार की स्थापना करता है। इसमें संघ के सभी आम लक्षण विद्यमान हैं; जैसे-दो सरकार, शक्तियों का विभाजन, लिखित संविधान, संविधान की सर्वोच्चता, संविधान की कठोरता, स्वतंत्रा न्यायपालिका एवं द्विसदनीयता आदि। 
  • हालांकि, भारतीय संविधान में बड़ी संख्या में एकात्मक या गैर-संघीय विशेषताएं भी शामिल हैं, जैसे कि एक मजबूत केंद्र, एकल संविधान, केंद्र द्वारा राज्य के राज्यपाल की नियुक्ति, अखिल भारतीय सेवाएं और एकीकृत न्यायपालिका आदि। इसके अलावा, संविधान में कहीं भी ‘फेडरेशन’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है। 
  • दूसरी ओर अनुच्छेद 1 में भारत का उल्लेख ‘राज्यों के संघ’ के रूप में किया गया है। इसके दो अभिप्राय हैं पहला, भारतीय संघ राज्यों के बीच हुए किसी समझौते का निष्कर्ष नहीं है, और दूसरा; किसी राज्य को संघ से अलग होने का अधिकार नहीं है। इसी वजह से भारतीय संविधान को निम्नांकित नाम दिए गए हैं, जैसे कि-एकात्मकता की भावना में संघ, अर्थ संघ, बारगेनिंग फेडरेलिज्म, को-ऑपरेटिव फेडरेलिज्म, फेडरेशन विद ए सेंट्रलाइजिंग टेंडेंसी’।

5. सरकार का संसदीय रूप

भारत के संविधान ने सरकार की अमेरिकी राष्ट्रपति प्रणाली के बजाय सरकार की ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को चुना है। संसदीय प्रणाली विधायी और कार्यकारी अंगों के बीच सहयोग और समन्वय के सिद्धांत पर आधारित है जबकि राष्ट्रपति प्रणाली दो अंगों के बीच शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर आधारित है। भारत की संसदीय प्रणाली को जिम्मेदार सरकार और कैबिनेट सरकार के ‘वेस्टमिंस्टर’ मॉडल के रूप में भी जाना जाता है। संविधान न केवल केंद्र में बल्कि राज्यों में भी संसदीय प्रणाली की स्थापना करता है। संसदीय प्रणाली में प्रधानमंत्री की भूमिका है, और इसलिए इसे ‘प्रधानमंत्री स्तरीय सरकार’ कहा जाता है।
भारत में संसदीय प्रणाली की विशेषताएं निम्नलिखित हैं:

  • बहुमत दल का शासन
  • कार्यपालिका का विधायिका के प्रति सामूहिक उत्तरदायित्व
  • विधायिका में मंत्रियों की सदस्यता
  • प्रधान मंत्री या मुख्यमंत्री का नेतृत्व
  • निचले सदन (लोकसभा या विधानसभा) का विघटन
  • भारतीय संसद, ब्रिटिश संसद की तरह एक संप्रभु निकाय नहीं है।
  • भारत की संसदीय सरकार में निर्वाचित राष्ट्रपति संवैधानिक मुखिया होता है।

हालांकि भारतीय संसदीय प्रणाली बड़े पैमाने पर ब्रिटिश संसदीय प्रणाली पर आधारित है फिर भी दोनों में कुछ मूलभूत अंतर हैं। उदाहरण के लिए ब्रिटिश संसद की तरह भारतीय संसद संप्रभु नहीं है। इसके अलावा भारत का प्रधान निर्वाचित व्यक्ति होता है (गणतंत्र), जबकि ब्रिटेन में उत्तराधिकारी व्यवस्था है। किसी भी संसदीय व्यवस्था में, चाहे वह भारत की हो अथवा ब्रिटेन की, प्रधानमंत्री की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो गई है। जैसा कि राजनीति के जानकार इसे’ प्रधानमंत्रीय सरकार ‘का नाम देते हैं।

6. संसदीय संप्रभुता एवं न्यायिक सर्वोच्चता में में समन्वय

भारत की संसद की संप्रभुता का सिद्धांत ब्रिटिश संसद से लिया गया है जबकि न्यायिक सर्वोच्चता का सिद्धांत अमेरिकी सुप्रीम से लिया गया है। भारतीय संसदीय प्रणाली ब्रिटिश प्रणाली से भिन्न है, भारत में सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक समीक्षा शक्ति का दायरा अमेरिका की तुलना में संकीर्ण है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अमेरिकी संविधान भारतीय संविधान (अनुच्छेद 21) में निहित ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ के खिलाफ ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ प्रदान करता है। इसलिए, भारतीय संविधान के निर्माताओं ने संसदीय संप्रभुता के ब्रिटिश सिद्धांत और न्यायिक सर्वोच्चता के अमेरिकी सिद्धांत के बीच एक उचित समायोजन को प्राथमिकता दी है। सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक समीक्षा की शक्ति के माध्यम से संसदीय कानूनों को असंवैधानिक घोषित कर सकता है। संसद अपनी संवैधानिक शक्ति के माध्यम से संविधान के अधिकांश भाग में संशोधन कर सकती है।

7. एकीकृत व स्वतंत्र न्यायपालिका

भारतीय संविधान एक ऐसी न्यायपालिका की स्थापना करता है, जो अपने आप में एकीकृत होने के साथ-साथ स्वतंत्र है। भारत की न्याय व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय शीर्ष पर है। इसके नीचे राज्य स्तर पर उच्च न्यायालय हैं। राज्यों में उच्च न्यायालय के नीचे क्रमवार अधीनस्थ न्यायालय हैं, जैसे-जिला अदालत व अन्य निचली अदालतें। न्यायालयों का एकल तंत्र, केंद्रीय कानूनों के साथ-साथ राज्य कानूनों को लागू करता है। हालांकि अमेरिका में संघीय कानूनों को संघीय न्यायपालिका और राज्य कानूनों को राज्य न्यायपालिका लागू करती है। सर्वोच्च न्यायालय, संघीय अदालत है। यह शीर्ष न्यायालय है, जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा की गारंटी देता है और संविधान का संरक्षक है। इसलिए संविधान में इसकी स्वतंत्रता के लिए कई प्रावधान किए गए हैं; जैसे-न्यायाधीशों के कार्यकाल की सुरक्षा, न्यायाधीशों के लिए निर्धारित सेवा शर्ते, भारत की संचित निधि से सर्वोच्च न्यायालय के सभी खचों का वहन, विधायिका में न्यायाधीशों के कामकाज पर चर्चा पर रोक, सेवानिवृत्ति के बाद अदालत में कामकाज पर रोक, अवमानना के लिए दंड देने की शक्ति, कार्यपालिका से न्यायपालिका को अलग रखना इत्यादि।

8. मौलिक अधिकार

संविधान के तीसरे भाग में छह मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। ये अधिकार हैं:

  1. समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
  2. स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
  3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
  4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
  5. सांस्कृतिक व शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
  6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)

मौलिक अधिकार का उद्देश्य वस्तुतः राजनीतिक लोकतंत्र की भावना को प्रोत्साहन देना है। यह कार्यपालिका और विधायिका के मनमाने कानूनों पर निरोधक की तरह काम करते हैं। उल्लंघन की स्थिति में इन्हें न्यायालय के माध्यम से लागू किया जा सकता है। जिस व्यक्ति के मौलिक अधिकार का हनन हुआ है, वह सीधे सर्वोच न्यायालय की शरण में जा सकता है, जो अधिकारों की  रक्षा के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा व उत्प्रेषण जैसे अभिलेख या रिट जारी कर सकता है। हालांकि मौलिक अधिकार कुछ सीमाओं के दायरे में आते हैं लेकिन वे अपरिवर्तनीय भी नहीं हैं। संसद इन्हें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से समाप्त कर सकती है अथवा इनमें कटौती भी कर सकती है। अनुच्छेद 20-21 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छोड़कर राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान इन्हें स्थगित किया जा सकता है।

9. राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांत

डॉ. बी.आर. अंबेडकर के अनुसार, राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांत भारतीय संविधान की अनूठी विशेषता है। इनका उल्लेख संविधान के चौथे भाग में किया गया है। इन्हें मोटे तौर पर तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-सामाजिक, गांधीवादी तथा उदार- बौद्धिका नीति-निदेशक तत्वों का कार्य सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र को बढ़ावा देना है। इनका उद्देश्य भारत में एक ‘कल्याणकारी राज्य’ की स्थापना करना है। हालांकि मौलिक अधिकारों की तरह इन्हें कानून रूप में लागू नहीं किया जा सकता। संविधान में कहा गया है कि देश की शासन व्यवस्था में ये सिद्धांत मौलिक हैं और यह देश की जिम्मेदारी है कि वह कानून बनाते समय इन सिद्धांतों को अपनाए। इसलिए इन्हें लागू करना राज्यों का नैतिक कर्तव्य है किंतु इनकी पृष्ठभूमि में वास्तविक शक्ति राजनैतिक है, अर्थात् जनमत। मिनर्वा मिल्स मामले (1980) “में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि,” भारतीय संविधान की नींव मौलिक अधिकारों और नीति-निदेशक सिद्धांतों के संतुलन पर रखी गई है। ”

10. मौलिक कर्तव्य

  • मूल संविधान में नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों का प्रावधान नहीं था। स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश पर 1976 के 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा मौलिक कर्तव्यों को हमारे संविधान में जोड़ा गया था। यह भारत के सभी नागरिकों के लिए दस मौलिक कर्तव्यों की एक सूची देता है। 
  • बाद में, 2002 के 86वें संविधान संशोधन अधिनियम में एक और मौलिक कर्तव्य जोड़ा गया। अधिकार लोगों को गारंटी के रूप में दिए जाते हैं, जबकि कर्त्तव्य ऐसे दायित्व हैं जिन्हें पूरा करने की अपेक्षा प्रत्येक नागरिक से की जाती है। हालांकि, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों की तरह, कर्तव्य भी प्रकृति में न्यायोचित (जिनका उल्लंघन या अनुपालना न होने पर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं हो सकती) हैं। 
  • संविधान में कुल 11 मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है। साल 1976 में भारतीय संविधान में 42 वें संविधान संशोधन में मौलिक कर्तव्य को शामिल किया गया था। इन्हें पूर्व सोवियत संघ के संविधान के मौलिक कर्तव्यों से लिया गया था। मौलिक कर्तव्य की संरचना सरदार स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश के आधार पर की गई थी। भारत के नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों की संख्या पहले 10 थी लेकिन बाद में संविधानिक संशोधन द्वारा इनकी संख्या 11 कर दी गई थी।

11. एक धर्मनिरपेक्ष राज्य

भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष है। इसलिए यह किसी धर्म विशेष को भारत के धर्म के तौर पर मान्यता नहीं देता।
संविधान के निम्नलिखित प्रावधान भारत के धर्मनिरपेक्ष लक्षणों को दर्शाते हैं:

  1. वर्ष 1976 के 42 वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष ‘शब्द को जोड़ा गया।
  2. प्रस्तावना हर भारतीय नागरिक की आस्था, पूजा-अर्चना व विश्वास की स्वतन्त्रता की रक्षा करती है।
  3. किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समान समझा जाएगा और उसे कानून को समान सुरक्षा प्रदान की जाएगी (अनुच्छेद -14)।
  4. धर्म के नाम पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा (अनुच्छेद -15)।
  5. सार्वजनिक सेवाओं में सभी नागरिकों को समान अवसर दिए जाएंगे (अनुच्छेद -16)।
  6. हर व्यक्ति को किसी भी धर्म को अपनाने व उसके अनुसार पूजा-अर्चना करने का समान अधिकार है (अनुच्छेद 25)।
  7. हर धार्मिक समूह अथवा इसके किसी हिस्से को अपने धार्मिक मामलों के प्रबंधन का अधिकार है (अनुच्छेद 26)।
  8. किसी भी व्यक्ति को किसी भी धर्म विशेष के प्रचार के लिए किसी प्रकार का कर देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा (अनुच्छेद 27)
  9. किसी भी सरकारी शैक्षिक संस्थान में किसी प्रकार के धार्मिक निर्देश नहीं दिए जाएंगे (28)। 
  10.  नागरिकों के किसी भी वर्ग को अपनी भाषा, लिपि अथवा संस्कृति को संरक्षित रखने का अधिकार है (अनुच्छेद 29)।
  11. अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शैक्षिक संस्थानों की स्थापना करने और उन्हें संचालित करने का अधिकार है (अनुच्छेद 30)।
  12. राज्य सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बनाने के लिए प्रयास करेगा (अनुच्छेद -44)।

धर्मनिरपेक्षता की पश्चिमी अवधारणा धर्म (चर्च) और राज्य (राजनीति) के बीच पूर्ण अलगाव रखती है। धर्मनिरपेक्षता की यह नकारात्मक अवधारणा भारतीय परिवेश में में लागू नहीं हो सकती क्योंकि यहां का समाज बहु धर्मवादी है। इसलिए भारतीय संविधान में सभी धर्मों को समान आदर अथवा सभी धर्मों की समान रूप से रक्षा करते हुए धर्मनिरपेक्षता के सकारात्मक पहलू को शामिल किया गया है। इसके अलावा संविधान ने विधायिका में धर्म के आधार पर कुसौं का आरक्षण देने वाले पुराने धर्म आधारित प्रतिनिधित्व को भी समाप्त कर दिया है। हालांकि संविधान अनुसूचित जाति और जनजाति को उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए अस्थायी आरक्षण प्रदान करता है।

12. सार्वभौम वयस्क मताधिकार

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान-सभा में कहा था कि संसदीय प्रणाली से हमारा अभिप्राय एक व्यक्ति एक वोट से है, जिस पर गंभीरतापूर्वक विचार करके संविधान के रचनाकारों ने साफ वयस्क मताधिकार (Universal Adult Franchise) की पद्धति अपनाई थी, ताकि प्रत्येक भारतीय को बिना किसी भेदभाव के मतदान के समान अधिकार प्राप्त हों।

  • इसीलिए भारतीय संविधान में बिना किसी भेदभाव के 18 वर्ष की अवस्थी वाले प्रत्येक नागरिक- चाहे वह स्त्री हो या पुरुष को मताधिकार दिया गया है। 
  • सन् 1935 के सुधार कानून के अंतर्गत केवल 14 प्रतिशत भारतीयों को मताधिकार प्राप्त थी, जबकि वर्तमान संविधान के अंतर्गत देश का प्रत्येक 18 वर्षीय स्त्री अथवा पुरुष नागरिक वयस्क मताधिकार पा लेता है। वह बिना किसी भेदभाव के स्थानीय निकायों, विधानमंडल, लोकसभा आदि के निर्वाचनों के लिए मतदान कर सकता है।
  • भारतीय संविधान द्वारा राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव के आधारस्वरूप सार्वभौम वयस्क मताधिकार को अपनाया गया है। हर वह व्यक्ति जिसकी उम्र कम से कम 18 वर्ष है, उसे धर्म, जाति, लिंग, साक्षरता अथवा संपदा इत्यादि के आधार पर कोई भेदभाव किए बिना मतदान करने का अधिकार है। वर्ष 1989 में 61 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1988 के द्वारा मतदान करने की उम्र को 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दिया गया था। 
  • देश के वृहद आकार, जनसंख्या, उच्च गरीबी, सामाजिक असमानता, अशिक्षा आदि को देखते हुए संविधान निर्माताओं द्वारा सार्वभौम वयस्क मताधिकार को संविधान में शामिल करना एक साहसिकवसराहनीय प्रयोग था। ” वयस्क मताधिकार लोकतंत्र को बड़ा आधार देने के साथ साथ आम जनता के स्वाभिमान में वृद्धि करता है, समानता के सिद्धांत को लागू करता है, अल्पसंख्यकों को अपने हितों की रक्षा करने का अवसर देता है तथा कमजोर वर्गों के लिए नई आशाएं और प्रत्याशा जगाता है।

13. एकल नागरिकता

एक संघीय राज्य में आमतौर पर नागरिक दोहरी नागरिकता रख सकते हैं जैसा कि संयुक्त राज्य अमेरिका में होता है। लेकिन भारतीय संविधान में केवल एक ही नागरिकता का प्रावधान है। इसका अर्थ है कि प्रत्येक भारतीय, भारत का नागरिक है, चाहे उसका निवास स्थान या जन्म स्थान कुछ भी हो। अगर कोई नागरिक किसी घटक राज्य जैसे झारखंड, उत्तरांचल या छत्तीसगढ़ का नागरिक नहीं है, जिससे वह संबंधित हो सकता है, लेकिन वह भारत का नागरिक बना रहता है। भारत के सभी नागरिक देश में कहीं भी रोजगार प्राप्त करने के हकदार हैं और भारत के सभी हिस्सों में समान रूप से सभी अधिकारों का उपयोग कर सकते हैं। संविधान निर्माताओं ने जानबूझकर क्षेत्रवाद और अन्य विघटनकारी प्रवृत्तियों को खत्म करने के लिए एकल नागरिकता का विकल्प चुना था। एकल नागरिकता ने निस्संदेह भारत के लोगों में एकता की भावना पैदा की है।

14. स्वतंत्र निकाय

भारतीय संविधान केवल विधाविका, कार्यपालिका व सरकार (केन्द्र और राज्य) न्यायिक अंग ही उपलब्ध कराता है। बल्कि वह कुछ स्वतंत्र निकायों की स्थापना भी करता है। इन्हें संविधान ने भारत सरकार के लोकतांत्रिक तंत्र के महत्वपूर्ण स्तंभों के रूप में परिकल्पित किया है।
ऐसे कुछ स्वतंत्र निकाय निम्नलिखित हैं: 

  • संसद, राज्य विधानसभाओं भारत के राष्ट्रपति और भारत के उप-राष्ट्रपति के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने हेतु निर्वाचन आयोग। 
  • राज्य और केंद्र सरकार के खातों के अंकेक्षण के लिए भारत का नियंत्रक एवं महालेखाकार। ये जनता के पैसे के संरक्षक होते हैं और सरकार द्वारा किए गए खचों की वैधानिकता और उनके उचित होने पर टिप्पणी करते हैं। 
  • संघ लोक सेवा आयोग। यह अखिल भारतीय सेवाओं व उच्च स्तरीय केंद्रीय सेवाओं के लिए भर्ती हेतु परीक्षाओं का आयोजन करता है तथा अनुशासनात्मक मामलों पर राष्ट्रपति को सलाह देता है।
  • राज्य लोक सेवा आयोग, जिसका काम हर राज्य में राज्य सेवाओं के लिए भर्ती हेतु परीक्षाओं का आयोजन करना व अनुशासनात्मक मामलों पर राज्यपाल को सलाह देना है। विभिन्न प्रावधानों, यथा-कार्यकाल की सुरक्षा, निर्धारित सेवा शर्ते, भारत की संचित निधि पर भारित विभिन्न व्यय आदि  के माध्यम से संविधान इन निकायों की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है।

15.आपातकालीन प्रावधान

आपातकाल की स्थिति से प्रभावशाली ढंग से निपटने के लिए भारतीय संविधान में राष्ट्रपति के लिए बृहद आपातकालीन प्रावधानों की व्यवस्था है। इन प्रावधानों को संविधान में शामिल करने का उद्देश्य है-देश की संप्रभुता, एकता, अखण्डता और सुरक्षा, संविधान एवं देश के लोकतांत्रिक ढांचे को सुरक्षा प्रदान करना।
संविधान में तीन प्रकार के आपातकाल की विवेचना की गई है:

  1. राष्ट्रीय आपातकालः युद्ध, आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह पैदा हुई राष्ट्रीय अशांति की अवस्था (अनुच्छेद -352)।
  2. राज्य में आपातकाल (राष्ट्रपति शासन) राज्यों में संवैधानिक तंत्र की असफलता (अनुच्छेद 356) वा केन्द्र के निदेशों का अनुपालन करने में असफलता (अनुच्छेद 365)।
  3. वित्तीय आपातकाल: भारत की वित्तीय स्थिरता या प्रत्यय संकट में हो (अनुच्छेद 360)।

इन प्रावधानों को शामिल करने के पीछे तर्कसंगतता देश की संप्रभुता, एकता, अखंडता और सुरक्षा, लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था और संविधान की रक्षा करना है। आपातकाल के दौरान, केंद्र सरकार सर्व-शक्तिशाली हो जाती है और राज्य केंद्र के पूर्ण नियंत्रण में चले जाते हैं। संघीय (सामान्य समय के दौरान) से एकात्मक (आपातकाल के दौरान) राजनीतिक व्यवस्था का इस तरह का परिवर्तन भारतीय संविधान की एक अनूठी विशेषता है।

16. त्रिस्तरीय सरकार

मूल रूप से, भारतीय संविधान में दोहरी राजव्यवस्था प्रदान की गई थी और इसमें केंद्र और राज्यों के संगठन और शक्तियों के संबंध में प्रावधान थे। बाद में, 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम (1992) ने सरकार के एक तीसरे स्तर (अर्थात, स्थानीय सरकार) को जोड़ा है, जो दुनिया के किसी भी अन्य संविधान में नहीं पाया जाता है। 1992 के 73वें संशोधन अधिनियम ने संविधान में एक नया भाग IX और एक नई अनुसूची 11 जोड़कर, पंचायतों (ग्रामीण स्थानीय सरकार) को संवैधानिक मान्यता दी। इसी प्रकार, 1992 के 74वें संशोधन अधिनियम ने संविधान में एक नया भाग IX-A और एक नई अनुसूची 12 जोड़कर नगर पालिकाओं (शहरी स्थानीय सरकार) को संवैधानिक मान्यता प्रदान की।

17. सहकारी समितियां

2011 के 97वें संविधान संशोधन अधिनियम ने सहकारी समितियों को संवैधानिक दर्जा और संरक्षण प्रदान किया।
इस संदर्भ में, इसने संविधान में निम्नलिखित तीन परिवर्तन किए:

  • इसने सहकारी समितियों के गठन के अधिकार को मौलिक अधिकार बना दिया (अनुच्छेद 19)।
  • इसमें सहकारी समितियों के प्रचार पर राज्य नीति के एक नए निर्देशक सिद्धांत (अनुच्छेद 43-बी) शामिल थे।
  • इसने संविधान में एक नया भाग IX-B जोड़ा, जिसका शीर्षक है “सहकारी समितियां” (अनुच्छेद 243-ZH से 243-ZT)।

देश में सहकारी समितियां लोकतांत्रिक, पेशेवर, स्वायत्त और आर्थिक रूप से सुदृढ़ तरीके से कार्य करें, यह सुनिश्चित करने के लिए नए भाग IX-B में विभिन्न प्रावधान किए गए हैं। यह बहु-राज्य सहकारी समितियों के संबंध में संसद को और अन्य सहकारी समितियों के संबंध में राज्य विधानसभाओं को उपयुक्त कानून बनाने का अधिकार देता है। 

18. जनसत्तात्मकता

भारतीय संविधान लोकतंत्र के सिद्धांत पर जनता का, जनता द्वारा तथा जनता के हित के लिए रचा गया है। संविधान में स्पष्टत: यह उल्लिखित है कि भारतीय संघ एवं उसकी समस्त इकाइयों में अंतिम सत्ता जनता के हाथों में रहेगी।

19. नर-नारियों की समानता का पोषक

भारतीय समाज में नारियाँ सदियों से शोषित और पीड़ित रही हैं। उन्हें प्रायः ऐसा कोई अधिकार नहीं दिया गया था, जिसके आधार पर वे अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रख पाती। भारतीय संविधान में उन्हें विना किसी भेदभाव के पुरुषों के समान अधिकार दिए गए हैं।

अव संविधान के अनुसार, सरकारी नौकरियों में भी पुरुषों एवं नारिणों में कोई भेदभाव नहीं बरता जाता। पुरुषों के समान महिलाओं को भी जन-प्रतिनिधि चुनने का वयस्क मताधिकार प्राप्त है। यहाँ तक कि महिलाओं के लिए पंचायतों तथा नगरपालिकाओं के निवचिन में एक-तिहाई सीटों पर आरक्षण है।

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FAQs on लक्ष्मीकांत: संविधान की मुख्य विशेषताएं - एम. लक्ष्मीकांत (M. Laxmikanth) भारत की राज्य व्यवस्था - UPSC

1. संविधान की प्रमुख विशेषताएं क्या हैं?
उत्तर: संविधान की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं: - सार्वभौमिकता: संविधान सभी नागरिकों के लिए एक सामान और सार्वभौमिक नियम प्रदान करता है। - मताधिकार: संविधान मताधिकार की गारंटी प्रदान करता है, जिससे हर नागरिक को अपनी राय व्यक्त करने और चुनाव में भाग लेने का अधिकार होता है। - मौलिक अधिकार: संविधान मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करता है, जिनमें स्वतंत्रता, जीवन, स्वतंत्रता, समानता और धर्मनिरपेक्षता शामिल होती है। - संविधानिक संरक्षण: संविधान राष्ट्रीय कानून होता है और संविधान के उल्लंघन पर कार्रवाई करने की गारंटी प्रदान करता है। - संविधान संशोधन: संविधान को समय-समय पर संशोधित किया जा सकता है, जिससे उसे देश की आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुरूप बनाए रखा जा सके।
2. संविधान की मुख्य विशेषताओं का उदाहरण दें।
उत्तर: संविधान की मुख्य विशेषताओं का एक उदाहरण यह है कि वह सभी नागरिकों के लिए एक सामान और सार्वभौमिक नियम स्थापित करता है। इसका मतलब है कि संविधान द्वारा सभी नागरिकों को व्यक्ति के जाति, धर्म, लिंग, वर्ग या क्षेत्र के आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करने का आदेश देता है।
3. संविधान क्यों महत्वपूर्ण है?
उत्तर: संविधान महत्वपूर्ण है क्योंकि उसे राष्ट्र के सभी नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों का संरक्षण करने का कानूनी आधार माना जाता है। यह नागरिकों को स्वतंत्रता, समानता, न्याय, और धर्मनिरपेक्षता जैसे मौलिक अधिकारों की सुरक्षा प्रदान करता है। इसके अलावा, संविधान द्वारा निर्धारित किए गए नियम और प्रक्रियाएं राजनीतिक और सामाजिक संरचना को संचालित करने में मदद करती हैं।
4. संविधान के संशोधन की प्रक्रिया क्या है?
उत्तर: संविधान को संशोधित करने की प्रक्रिया 'संविधान संशोधन' के रूप में जानी जाती है। संविधान संशोधन के लिए एक विशेष प्रक्रिया होती है जिसमें पहले संविधान संशोधन विधेयक तैयार किया जाता है, फिर इसे संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) में पेश किया जाता है। दोनों सदनों को अलग-अलग मेजबानी करके विधेयक को स्वीकृति देनी होती है। इसके बाद राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद विधेयक को संविधान के हिस्से के रूप में स्वीकार किया जाता है।
5. संविधान के बिना क्या हो सकता है?
उत्तर: संविधान के बिना एक देश में कानूनी और संवैधानिक आधार की कमी हो सकती है। इसके बिना नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों का सं
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